इतना क्यों जीते हो डर डर के बेमतलब
जिंदगी ही तो है,कोई समंदर थोड़े ही है
खतम तो होना ही है कोई अम्बर थोड़े ही है
चाहे जियो दिन चार,पर जिंदगियां हों उसमें हज़ार
हर पल हो इतना बड़ा जिसमें समाए जीवन सारा
मुझे मत बताओ ये उलझन ये मुश्किल
तुम इंसान ही तो हो कोई खुदा थोड़े ही हो
यही तो मुक्कदर है मेरा तुम्हारा और सबका
क्यों हर दिन का फिर भी वही रहता है रोना
पता क्या कब उड़ जाए ये हंस जहाँ से
सब टेम्परेरी है कोई परमानेंट थोड़े ही है
थाली में रोटी है और बदन पे है धोती
साँसे भी देती हैं हरपल गवाही तेरे होने की
तो जी ले तू खुलके और लगा ले फिर ठहाके
ये सब तो मुफ्त है कोई टैक्स थोड़े ही है
थोड़ा हो जा खुदगर्ज़ ,सुन ले कुछ दिल की
फ़िकर को आज थोड़ा दे दे आराम
आज कुछ कर ले तू अपने भी मन की
ये हक़ है तेरा कोई एहसान थोड़े ही है।
★★★
प्राची मिश्रा